गीत: सब तो अपने हैं !

बदल रहे हैं समाजों के रास्ते जेसे  

किसी का कोई नहीं बद गुमां हैं सब, सब से 

ज़मीन भी हक़ के लिए अब तवाफ करती है

हर एक बशर को बशर के ख़िलाफ़ करती हे 

फलक भी अपने करम का हिसाब माँगे हे 

कभी क़लम तो कभी हर किताब माँगे हे 

इधर भी अपने शिकायत का शोर करते हैं 

उधर भी अपने फ़क़त चोर चोर करते हैं 

किसी से छीन कर दुनिया किसी को क्या देता 

खुदा भी होता अगर में तो किस को क्या देता 

ऊपर नीचे अपने हैं 

आगे पीछे अपने हैं 

लूटने वाले अपने हैं 

लुटते रोते अपने हैं 

किस को किस का हक़ दिलवाएँ,

सब तो आख़िर अपने हैं । 

दीवानों को क्या समझाएँ, 

सब तो आख़िर अपने हैं ।

सढ़कों पर है न्याय की होड़

अपने और पराए की होड़

ह्रदयहीन हैं सब आदर्श

प्रलय-पथ हैं अब संघर्ष 

धर्म जाति भाषा एतिहास 

भीड़ के बंदी हर्ष उल्लास 

नफ़रत किस के साथ जताऐं

सब तो आख़िर अपने हैं 

घर ले लो ये खेत भी लो 

प्रेम के सब संकेत भी लो 

साथ मैं गाये गीत भी लो 

सपनों का संगीत भी लो 

बाँट रहे हो घर को तो फिर 

सरहद चाहे जहाँ बनाओ

रिश्तों को अब क्या नपवाएँ, 

सब तो आख़िर अपने हैं ।

दिल अपना वीरान किया 

दुश्मन को बलवान किया 

भय अपना भगवान किया 

किस विश में यह शनान किया 

उस ने हम को द्रोही कहकर 

दोष रखा, अपमान किया 

हम ख़ुद को अब भी समझाएँ, 

सब तो आख़िर अपने हैं ।